गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

रूठी तनहाईयों में दर्द की बाहों मे सिमटे

रूठी तनहाईयों में
दर्द की बाहों मे सिमटे
कही मंज़िल हम तलाश रहे है
लबो पे तीखी शराब है बरसे
हम नशे मे झूम रहे है

क्या कहेती है तू ज़िंदगी
सब सहेती है तू ज़िंदगी
थम थम के चलती है
ये धड़काने
हम अचम्भीत है की
ये रुकती क्यू नही
कही हमने ज़ायदा
तो नही पे ली है

आंखों से छलकते
है अँगरे
एह आँखें सदा के लिए
बंद होती क्यो नही
हम जी रहे है बिना सहारे
कही यही तो जीना नही
इस जाम से लगता है
दर्द हलखे हो रहे है

वो कहेते है
इतनी पिया ना कहो
घुट घुट के यूह
जिया ना करो
हमसे बर्दास्त नही
होती ये बेवफ़ाई
पीते रहेंगे तो
जीते रहेंगे
खुद को पल पल
दिलासे दे रहे

4 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन इसी को कहते है जो हर पल स्पष्ट न रहे....
    आपने एक अच्छी रचना की है लेकिन कही-कही वर्तनी में त्रुटी है उसे शुद्ध कर लीजिये, जिससे इसे लय में पढ़ा जा सके....
    धन्यवाद...

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  2. लोकेंदर जी आप मेरे ब्लॉग पे आये यही मेरे लिए बड़ी बड़ी सफलता है और मुझे अपने विचारो से अवगत करवाया
    बस असे ही आना जाना बना के रखिये
    धन्यवाद्
    दिनेश पारीक

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  3. किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।

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  4. सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !

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