रविवार, 14 अप्रैल 2013

मेरी मांग



 कुछ देखा और कुछ मन  को  भा गया
उपर वाले  को  फिर से मेरी इस मांग  पर गुस्सा  आ गया 
फिर भी चुप  था  में  जो  मेरी  मांग  ठुकरा  गया 
मैंने  माँगा  जो   उसने कहा वो  गुस्से  में  आ  गया
मेरे चाँद  की रोटी  फिर  से कोई खा  गया 
 सपना था मेरा  बहुत पुराना  मुझे भी गुस्सा  आ  गया
नील  आसमान  पर मैं  भी राहू  की तरह  छा  गया 
मेरा सपना  बेचैन  था बेचैन थी ये हवाएँ 
मेरी हर  उमंग  बेचैन  थी  मेरा  हर  सपना  छला  गया 
मेरी हर  उमंग  को  मेरी  आदत  कहा  गया 
 दिन  में  सोने  अँधेरी  रात  को भी दिन  कहा  गया 
अदालत  लगी इस असमान पर  फिर मुझे बंदी  बनाया  गया 
आसमान  के सितारों  को गवाह  बनाया  गया 
मुझे  मेरे  सपने  देखने  के जुर्म  में  पागल  बनाया  गया 
हर  सपना  टुटा मेरा  अब  क  से  कबूतर  बनाया  गया 
मुझे अब विद्यालय  जाने  का  फसला  सुनाया  गया