रूठी तनहाईयों में
दर्द की बाहों मे सिमटे
कही मंज़िल हम तलाश रहे है
लबो पे तीखी शराब है बरसे
हम नशे मे झूम रहे है
क्या कहेती है तू ज़िंदगी
सब सहेती है तू ज़िंदगी
थम थम के चलती है
ये धड़काने
हम अचम्भीत है की
ये रुकती क्यू नही
कही हमने ज़ायदा
तो नही पे ली है
आंखों से छलकते
है अँगरे
एह आँखें सदा के लिए
बंद होती क्यो नही
हम जी रहे है बिना सहारे
कही यही तो जीना नही
इस जाम से लगता है
दर्द हलखे हो रहे है
वो कहेते है
इतनी पिया ना कहो
घुट घुट के यूह
जिया ना करो
हमसे बर्दास्त नही
होती ये बेवफ़ाई
पीते रहेंगे तो
जीते रहेंगे
खुद को पल पल
दिलासे दे रहे
जीवन इसी को कहते है जो हर पल स्पष्ट न रहे....
जवाब देंहटाएंआपने एक अच्छी रचना की है लेकिन कही-कही वर्तनी में त्रुटी है उसे शुद्ध कर लीजिये, जिससे इसे लय में पढ़ा जा सके....
धन्यवाद...
लोकेंदर जी आप मेरे ब्लॉग पे आये यही मेरे लिए बड़ी बड़ी सफलता है और मुझे अपने विचारो से अवगत करवाया
जवाब देंहटाएंबस असे ही आना जाना बना के रखिये
धन्यवाद्
दिनेश पारीक
किस खूबसूरती से लिखा है आपने। मुँह से वाह निकल गया पढते ही।
जवाब देंहटाएंसोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना ! सादर !
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