शनिवार, 16 मार्च 2013

एक शाम तो उधार दो


तुम्हें जब  भी मिलें  फुरसतें , मेरे  दिल  से  ये बोझ  उत्तार  दो 
मैं  बहुत दिनों से  उदास हूँ , मुझे  एक शाम  तो  उधार  दो 
इस दुनिया  का रंग  उतार  दो अपने  प्रेम  रंग  चढ़ा  दो
ये बेरंगी  हो गई है मेरी दुनिया  अपना  रंग  मुझे उधार  दो 
मुझे  अपने  रूप  की धुप  दो  जो चमक  सके मेरी दुनिया 
मुझे  अपने  रंग  में रंग दो  मेरे सारे जंग  उतर दो  
तुम बिन  जिया  नहीं जाता  एक  तो जीने का मक़ाम  दो 
हर  शाम मुझे  काटती  है मुझे  मौत तो आसान  दो 
मेरी ऑंखें बोझिल  हो गई हैं  ये बोझ तो उतार  दो 
 तुम बिन पतझड़ जैसा  जीवन अपना  दिल का बसंत सुमार  दो 
तुम से डोरी से डोरी बंधी रहे  मुझे ऐसा  कोई नकाब  दो
बारिश  आयी  चली गई पतझड़  जैसा ना  तुम  ख्वाब दो 
बहुत दिनों  से बे -करार  हूँ जीने की  एक वजह उधार  दो 
दिनेश पारीक 


बुधवार, 13 मार्च 2013

साहित्य के नाम की लड़ाई (क्या आप हमारे साथ हैं )



आज सुबह  जीमेल  खोल तो सबसे  पहले नव्या से आया एक मेल  मिला जब से खोल तो पढ़ा तो में दंग  रहा गया  अब तक में नहीं समझ पा  रहा हूँ की क्या ये सच में साहित्य  की लड़ाई है या फिर साहित्य के नाम की लड़ाई है या फिर घर्णा  है या द्वेष  है या फिर से एक धोका है  इस संदर्भ  में आप  से राय  जानना  चाहता हूँ ? क्या सच  में ऐसा  करना ठीक है सच  में दोस्ती नाम पर इतना बड़ा विशवासघात और वो भी एक साहित्य के नाम को लेकर जिस साहित्य  से शीला डोंगरे जी को जाना पहचाना  जाता है उस साहित्य  के साथ इतना बड़ा  विश्वासघात  बड़े शर्म  और लजा  की बता है 
दिनेश पारीक 


Sheela Dongre

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श्री पंकज त्रिवेदी जी ...
   
काफी समय से हमारा सम्पर्क नही रहा .. आपको जरुरी सुचना देनी थी ।  मेरी प्रिंट पत्रिका 'नव्या' का पंजीकरण प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी है ! इस पत्रिका के सम्पूर्ण अधिकार मेरी संस्था ''अखिल हिंदी साहित्य सभा'' अहिसास के पास सुरक्षित है । १५ मार्च २००१३ को आपको बाकायदा लीगल नोटिस भेज दिया जाएगा । अब से 'नव्या' मासिक पत्रिका के रूप में पाठकों तक पहुंचेगी । आप से विनम्र निवेदन है की आप 'नव्या' का नाम उपयोग न करे । तथा 'नव्या के नाम से किसी प्रकार से कोई आर्थिक  वेव्हार न करे । ICICI  ब्यांक का अकाउंट तुरंत बंद करे । मै कल ही फेब पर ये नोटिस दल देती हूँ । ताकि लोगो को समय रहते सुचना मिल सके ।
                                                            धन्यवाद
                                                                                                               भवदीय 
                                                                                                           शीला डोंगरे  

                         _________________________________________________

Pankaj- Smallसम्माननीय साहित्यकार और पाठकगण,
आप सभी को मेरा नमस्कार |
‘नव्या’ मेरा सपना था और उसी सपने को साहित्य के माध्यम से साकार करना चाहता हूँ | आप सभी ने मुझे ‘नव्या’ के लिए कार्य करता हुआ हमेशा देखा है | आप सभी जानते होंगे कि कोई भी पत्रिका किसी अकेले से आगे बढ़ नहीं सकती | यही कारण मैंने कुछ लोगों को संपादन कार्य में सहयोग लेने के आशय से स्वीकृत किया था | जिसमें नासिक से शीला डोंगरे सह संपादक के रूप में अपनी मर्जी से जुडी थी | शुरू में संपादन में मेरे साथ कार्य करने के बाद विश्वास जीत लिया था |
आप सभीने देखा होगा कि एक वर्ष पूर्ण होते हमने ‘नव्या-प्रिंट’ के चार अंक प्रकाशित किये और उन सभी में सह संपादक के तौर पर शीला डोंगरे का नाम रहा है | मतलब यही कि हमारे मन में कहीं कोई खोट नहीं थी | मगर आज मुझे शीला डोंगरे का एक ईमेल मिला जिसने मुझे झकझोरकर रख दिया | मुश्किल वक्त तो हर किसी को आता है | मगर दोस्ती के नाम कंधे पे हाथ रखकर पीठ में वार करने वाले अपने ही होते हैं | अपने निहित स्वार्थ के लिए शीला डोंगरे ने मुझे जो ईमेल दिया है वो सादर आप सभी के सामने रखता हूँ | ‘नव्या’ के आर.एन.आई. नंबर की प्रक्रिया सरकारीकारण के हिसाब से चल रही है | गुजरात में विविध चुनाव और अन्य कारणों से विलम्ब जरूर हुआ |
अब आप सभी से एक ही बिनती है कि – मेरे दो ईमेल editornawya@gmail.com और nawya.magazine@gmail.com तथा मेरे मोबाईल नंबर : 09662514007 / 09409270663 के अलावा किसी भी ईमेल से या फोन से ‘नव्या’ के सन्दर्भ में आपसे कोई कुछ भी कहें या संपर्क करें तो उसके लिए मैं कसूरवार नहीं हूँ या न जिम्मेदारी होगी |
‘नव्या’ का प्रकाशन यहाँ सुरेन्द्रनगर (गुजरात) से ही होगा |
अब असलियत आप सभी के सामने है | मैं आर.एन.आई. नंबर पाने के लिए तेज़ गति से कोशिश करता हूँ | ‘नव्या’ जरूर चलेगी, आप भरोसा रखें | मगर अब हम सभी को पूरी सावधानी बरतनी होती | ‘नव्या’ की आबरू दाँव पर लगी है | ऐसे में मैं आप सभी का सहयोग चाहूँगा | कुछ लोग मुझे पहले और फिर ‘नव्या’ को जानते हैं और कुछ ‘नव्या’ के कारण मुझे | मैं अपने बारे में ज्यादा सफाई नहीं दूँगा और न इस वक्त उस मन:स्थिति में हूँ | मुझे ताज्जुब इस बात का है कि शीला डोंगरे ने कब और कैसे यह सब किया उसका उत्तर तो वोही दे सकती है |  वो 'नव्या' की 'गुडविल' का इस्तेमाल करना चाहती है, अभी तो यही प्रतीत होता है |
मगर मेरे अंतर से जो शब्द निकल रहे हैं उस पर आपको भरोसा होगा यही मानकर मैं आगे बढ़ रहा हूँ | हारना मैंने नहीं सीखा | आप अगर 'नव्या' और मेरे साथ हैं तो खुलकर अपनी वाल पर भी इसके पुष्टि देकर अपनी राय खुलकर जरूर दीजिए | सबसे अहम बात - अगर आपके हाथ में 'नव्या' के नाम से कोई भी पत्रिका अन्य शहर से मिलती हैं और अगर उसके लिए पैसे देकर सदस्यता प्राप्त करते हैं तो वो खुद आपकी ही जिम्मेदारी होगी | व्यक्तिगत मेरा या 'नव्या' का इस से कोई संबंध नहीं हैं | आप सभी की प्रतिक्रिया-सलाह-सुझाव की अपेक्षा हैं |
आपका,
पंकज त्रिवेदी


रविवार, 10 मार्च 2013

अर्ज सुनिये

विनती  सुनिये हे  समाज हमारी
दुविधा  में पड़ी  हूँ  जंजीरो  से जकड़ी  हूँ 
विनती  सुनिये  हे  नाथ हमारी .............................
इस दुविधा  की घडी  मैं  इस अत्याचारों  की गली में  ... 
विनती  सुनिये  हे  कृष्ण  मुरारी 
भरे  मेरे विलोचन  नयेना दुख  पड़ा है भरी 
कु द्रष्टि हो रही है  ये तेरी नारी  
विनती  सुनिये  हे  ब्रिज  बिहारी 
पल पल  जीती  पल पल मरती 
पल भर में ही मर मर  जाती 
किस 2 आँखों  से  बचूं  किस  2 आँखों  में खो जाऊं  
हर  दिन शर्मिंदा  होती  किस दुनिया में  खो जाऊं 
 इस धरा  पर बोझ  पड़ा  है भारी  हे  मेरे  कृष्ण  मुरारी ..... विनती 
 विनती सुनिये   श्री रणछोड़  बिहारी ........ विनती  
हर  दिन तपती  हर दिन  खोती  इस समाज  की मारी 
हर दिन  मैं ही  तो  गर्भ  में  जाती मारी 
इस व्यथा  को  किस  तरह  सुनाऊ  हें  ब्रज  बिहारी 
च्चकी  के पाटों  में  मैं  पिसती 
हर  बिस्तर  पर  में ही जलती 
हर चोराहों  पर में नंगी  होती 
हर  मंदिर  में   मैं  ही पूजी  जाती 
फिर में ही  बलि  के लिए  उतारी  जाती 
हर पल  द्रोपती  मुझे  ही बनाई  जाती 
अर्ज सुनिये  हे  गोपाल  हमारी .......... विनती सुनिये  हे  नाथ हमारी 
दिनेश  पारीक 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

तुम मुझ पर ऐतबार करो ।


 तुम  मुझ पर ऐतबार करो ।
मैंने तुम्हारा हाथ थामकर  तुम्हें । उम्र भर चाहने की कसम खाई हैं 
तुम मेरी इन यादों पर ऐतबार करो । इन में  तुम्हारा ही घरोंदा है 
तुम मेरे इन होटों का ऐतबार करो !जिस पर हर वक़्त तुम्हारा ही नाम  रहता है 
तुम मेरी इन आँखों का ऐतबार  करो । जो हर पल तुम्हें देखने के लिए बेचैन रहती  हैं ।।
तुम मेरी सांसों ल ऐतबार  करो ।जिस में सिर्फ तुम्हारी खुशबू महकती है 
तुम मेरे ख्यालों और  दिल  का ऐतबार  करो  । जो तुम्हारे बगैर कही नहीं  लगता है  
तुम मेरे इस वजूद  का ऐतबार  करो  । आपके  लिए ही  मुझे बनाया  है 
तुम  मेरे  दिल  का  ऐतबार  करो , जो ये तुम्हारे  ही नाम  पे धडकता है 
तुम मुझे पर ऐतबार  करो  जो में सिर्फ तुम को अपनी मानता हूँ 
             क्यूँ कहती हो तुम
मत कहो ये तुम की अब किसी बात  पर ऐतबार  नहीं होता """"""""""""""""""
होता है बस समझोता  दिलों  का बस प्यार  नहीं होता है 
कितना  समझाऊ  तुम को और इस दिल-ऐ  नादान  को 
तुम्हारा  एक कतरा  प्यार  भी मेरे लिए सागर  होता है 
तुम  मुझ पर ऐतबार करो ।   "दिनेश पारीक "

शनिवार, 2 मार्च 2013

पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

कोन  सुनेगा  मेरा दर्द 
टिका  कर रखती है
पृथिवी हमें और कंपाती भी,
है  जल  धरा  के बरसनेपर 
बरसता गगन से
जल और अग्नि, पवन देता ठिठुरन
और चक्रवात
सब  कितनी  सहजता  से  हो जाता है 
कभी हम भी वशीभूत  हो जाते  है 
इस धरा  पर  
फूलो  के महकने  से लेकर 
मुरझाने  तक  सहना 
पानी  बरसने  से लेकर 
सूखने  तक  सहना 
पेड़ो   के अकुर  फूटने  से लेकर 
पेड़  बनते  देखना 
फिर उसी  पेड़  को कटने  देखना 
और  अपने ही अंग  को  अपने ही बेटे  की चिता 
 के साथ दोनों के जलते देखना 
क्या इस पृथिवी के लिए  इतना सहज  है 
सहज  ये सहज शब्द  ही हम कितनी  सहज 
से उपयोग  मैं ले लेते है 
कभी ये सहज  शब्द  माँ   बहिन  बेटी 
अर्धांगिनी  के लिए हम  बड़ी आसानी 
से उपयोग  मैं लाते  हैं 
कभी नहीं सोचते 
की वो  इस दर्द  भरे  शब्द  को सुनकर 
क्या सहज  महसूस  करती है 
वो भी तो  हमारे  लिए  एक धरा  है 
उसी  के अंग  से हमारे  अंग है
पता नही नहीं कब तक ये सहज शब्द 
वो  सह सकेगी   ये भी तो द्रोपती  ही है 
कब ये द्रोपती  बन जाये  फिर  
एक महाभारत  हो जाये 

महाभारत
होता है जीवन
हर किसी का भीतर भी,
बाहर भी बैठे हैं नकृष्ण
सबके भीतर,
कह रहे गीता
सबको अपनी-अपनी
सुन सकते हो इसको तुम भी
अर्जुन बनकर।