शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

याद बहुत आता है

हर पल मुझको अपना बचपन, याद बहुत आता है
कुछ देर को तो मन हंसता है, फिर जाने टूट क्‍यों जाता है
क्‍या हो जाता कुदरत को, यदि सच मेरा वो सपना होता
चाहत थी जिस बचपन की, काश मेरा वो अपना होता
नन्‍हीं सी मुस्‍कान देख जब, पापा का चेहरा खिल जाता
उन तोतले शब्‍दों में जब, मम्‍मी का मन खो जाता
भैया की अंगुली को थामे, जब मैंने चलना सीखा
पथरीली राहों पर जब, गिर-गिरकर फिर उठना सीखा
तूफानों के बीच घिरा, सदा अकेला खुद को पाया
कहने को सब साथ थे, पर नहीं साथ था अपना साया
याद नहीं वो सारी बातें, बस कुछ हैं भूली-बिसरी यादें
यादों के वो सारे पल, अब तक मेरे पास है
इतने सालों बाद भी, वो ही सबसे खास है
कुछ पंखुडियों के रंग है, कुछ कलियों की मुस्‍कान है
कुछ कागज की नावें हैं, कुछ रेतों के मकान है
कुछ आशाओं के दीप है, कुछ बचपन के मीत है
कुछ बिना राग के गीत हैं, कुछ अनजानों की प्रीत है
कुछ टूटे दिल के टुकड़े हैं, कुछ मुरझाए से मुखड़े हैं
कुछ अपनों के दर्द है, कुछ चोटों के निशान हैं
मेरे प्‍यारे बचपन की, बस इतनी सी पहचान है
मेरे प्‍यारे बचपन की, बस इतनी सी पहचान है।

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