शुक्रवार, 20 जनवरी 2012

कैसे लिखूं मैं शोक गीत

कैसे लिखूं मैं शोक गीत
सावन की रिमझिम फुहार है
मौसम खुशगवार है
चारों तरफ हरियाली है ,माहौल में बहार है
कैसे लिखूं शोक गीत ,दर्द में लिपटे शब्द नहीं हैं
लिखने तो बैठा हूँ पर ,शोक महसूस नहीं है
औपचारिकता निभाकर बनावटी शोक कैसे व्यक्त करूँ
झूठे आंसू लाकर अपनी आँखों से कैसे झरूँ
किसी ग़मगीन के घर जाकर ही ये मैं लिख पाउँगा
पर दोस्त रिश्तेदारों में कोई मरा नहीं, शोक कहाँ से लाऊंगा
लिख सकता था उस दिन ये गीत जब ट्रेन दुर्घटना हुवी
नक्सालियों के हमले से जब किसी की दुनिया बर्बाद हुवी
भयंकर बाढ़ में जब किसी का आशियाना उजड़ा हो
कमाऊ पूत के असामयिक निधन का जब दुखड़ा हो
जवान मौत बिलखता परिवार देखता हूँ रोना जरूर आता है
तब शोक के स्वर निकलते हैं कितना क्रूर विधाता है
उस वक़्त नियति पर लिखने का मन करता है
शोक गीत लिखने को तब पेन सरकता है
शोक तो दिल से निकला दर्द होता है
जब खुद पे गुजरती है तो पत्थरदिल भी रोता है
शोकग्रस्त की आवाज ही सच्चा शोकगीत लिख payegi
जमीं से आस्मां तक उसकी दर्दभरी आवाज गूँज जाएगी
झूठा शोक मैं बयाँ नहीं कर सकता
दिखावे का शोकगीत मैं नहीं लिख सकता
शोक गीत के नाम पर दो लाईने सबकी तरह मैं भी लिख डालता हूँ
“भगवान मृतात्मा को शांति प्रदान करे “लिख शोकगीत का भ्रम पालता

रविवार, 15 जनवरी 2012

स्वयं की खोज – एक अदभुत यात्रा!

एक अनोखी अंतहीन यात्रा
ना कहो इसे बिंदू या मात्रा!
समय के चक्रव्यूह से परे
निर्विकार, निर्मल और स्फूर्ति भरे
उस ‘स्वयं’ को खोजने चले!
जो देख के भी ना दिखे
जो समझ के भी जटिल रहे!
जो ज्ञात हो के भी अज्ञात लगे!
यह विशालकाए समुन्द्र
में उस कुचली हुई छोटी सी बूँद
के अस्तित्व के समान है
जो, ओझल और तिरस्कृत होते हुए भी
अपने होने का आभास कराती है!
कोई कहे, ज्ञान से इसको पा लो
कोई बिरला चाहे, ध्यान से इसमें समा लो
कोई इसे कर्म में ढूंढे,
स्वयं फिर भी अपरिचित लगे!
स्वयं का यही सार
जीवन के है दिन चार
खुशिया लुटाओ खुले हाथ
लिए संग अपनों को साथ
भावनाओ को जीओ भरपूर
ना रहो, स्वयं से दूर
भीग जाओ मधुर क्षणों के रस में
अनुभव करो स्वतंत्रता हसी में
सपनो पर रखो पूरा विश्वास
छोड़ना नहीं कभी तुम आस
यही है, तुम्हारे होने का प्रयास
सच्चा, स्वयं का आभास!

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

वेदना

जब जिस्म से
साँसों का बंधन टूट जाता है
विछोह की वेदना में
हर शख्स शोक मनाता है
शोक में दुनियादारी के लिए
चंद अश्क भी बहाए जाते है
आपसी मतभेद छुपाये जाते हैं
याद किया जाता है उसके कर्मों को
उससे अपने प्रगाड़ सम्बन्धों के
मनके गिनवाए जाते हैं
ऐसे अवसरों पर अक्सर
ऐसे शोक में डूबे
नजारे नजर आ जायेगे
और पल भर में अपने
आडम्बर की कहानी कह जायेंगे
ऐसे ही एक अवसर पर
जाने कितने काँधे
एक जिस्म को उठाने
के लिए आतुर थे
हाँ
आज वो सिर्फ और सिर्फ
एक जिस्म था
बेजान, निरीह
गुलाब के फूलों से सजा
कल तक जो चौखट
उसके आने का
इन्तजार करती थी
आज उस चौखट से
उसका नाता टूट गया
हर रिश्ते का धागा टूट गया
कौन जाने
किसके दिल में दर्द कितना है
जाने किसके सूखे अश्कों में
ये जिस्म दूर तक जिन्दा रह पायेगा
अपने बीते हुए हर पल की
कहानी कह पायेगा
हर रिश्ते की आँख
कुछ दिनों में सूख जायेगी
जिस्म जल जाएगा
अस्थियाँ गंगा में बह जायेंगी
सब अपना फर्ज निबाह कर
दुनियादारी में लग जायेंगे
किसके लिए शोक किया था
शायद ये भी भूल जायेंगे
फ्रेम में जड़ी तस्वीर के आगे
सिर को झुका के निकल जायेंगे
दुनियादारी के शोक तो
अश्कों के साथ बह जायेंगे
मगर
टूटा है जिसका साथ
वो सदा के लिए
टूट जाएगा
उसका हर अन्तरंग पल
उसकी अनुभूति से
गीला हो जाएगा
जिन्दा रहेगा जब तक
दिल
उसके अक्स को
न भुला पायेगा
दिखेगा न किसी को
और
शोक दिल का
हमसाया हो जाएगा,हमसाया हो जाएगा,
हमसाया हो जाएगा ….

रविवार, 8 जनवरी 2012

कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: मेरी धड़कनमेरी धड़कनमॉंलौट रही थी खाली घड़ा लेक...

कुछ अनकही बाते ? , व्यंग्य: मेरी धड़कनमेरी धड़कन

मॉं
लौट रही थी खाली घड़ा लेक...
: मेरी धड़कन मेरी धड़कन मॉं लौट रही थी खाली घड़ा लेकर मैं पलट रही थी भूगोल के पृष्ट... और खोज रही थी देश के मानचित्र पर नदियों का बहाव मॉं सा...

सारांश यहाँ आगे पढ़ें के आगे यहाँ

शुक्रवार, 6 जनवरी 2012

मैं घास हूँ-पाश


बम फेंक दो चाहे
मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
विश्‍वविद्यालय पर
बना दो हॉस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
...
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊँगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
-पाश