मंगलवार, 19 जून 2012

मुझे लडकी बना दे


काश उपर वाला मुझे लडकी बना दे 
और फिर मुझे एक लड़की की माँ बना दे |
वो सकून, वो , वो दर्द, कोई मुझे भी दिला दे,
कोई मुझे एक लड़की के कपडे ही पहना  दे ||
मैं भी उसे अपने गर्भ में रखती , उसको महसूस करती
मेरी सांसो से साँस लेती , उस की बातो को महसूस करती 
और नहीं तो कोई मुझे माँ का अस्तित्व ही समझा दे ||

हर दिन   मैं उसका सपना अपनी उसका सपना देखती 
वो दिन भी गिनती जब वो इस संसार  को देखती
कब वो आये कब मुझे माँ बुलाये 
कोई  अपनी बेटी मुझे एक दिन के लिए उधार देदे
वो न हो सके तो मुझे माँ कहने का अधिकार देदे 

 मैं अब असे ही मानता हूँ  आज उसका जनम हो गया   
मेरा एक सपना सपने में ही आज झूठ सा सुच हो गया 
उस को देख देख कर हँसती, फिर उसको सिने से लगा लेती 
कितनी प्यारी गुडिया है , उसके माथे पर कला टिका लगा देती 
हे असमान हे धरती आप ही मुझे महसूस कर व दो 
कोई तो सुने मेरी पुकार मुझे एक लड़की बना दे ||

 हे असमान हर नजरो से से कह दो  मेरी पुकार
हर आदमी से कह दो मेरी ये सदा 
हर मनुष्य से कह दो जो सोचते है मेरी बेटी को ?
कोई तो मुझे इन को बंद करने का अधिकार दिला दो 
 ये न  हो सके  तो  मुझे इस धरती से उठा दो 

काश उपर वाला मुझे लडकी बना दे 
और फिर मुझे एक लड़की की माँ बना दे |

दिनेश पारीक 

रविवार, 10 जून 2012

कभी हम जिंदगी से रूठ बैठे

कभी हम जिंदगी से रूठ बैठे, कभी जिंदगी हम से रूठ बैठी
पर हुआ कुछ भी नहीं
पलट के देखा तो हम से किस्मत भी रूठ बैठी
नुकसान भी मेरा हुआ और हर्जाना भी मेरी जिंदगी भर बैठी
आज दिल टूटने का अंदेसा हुआ था
हम तो उस के घर भी गए थे पर आज वो भी रूठ बैठी
कही ये वो बचपन के मिटटी कर घर जेसा लगा
कही ये मिटटी के पुतले जेसा लगा
उसको भी थी खबर मुझ को भी थी खबर
फिर भी ये जिंदगी से खेल बैठी
पलट के देखा तो हम से किस्मत भी रूठ बैठी ||
कहा लोगो ने भी मुझे एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर मांगने आ जाए!
यूँ तो मैं भी न रोने वाला था पर वो भी तो इतने खुश थे की उनके हिस्से का रोना मुझे आ जाये ||
कभी न वो रोये थे न अब वो रोये है फिर क्यूँ वो सकुन उसे दे बेठे 
हम तो थे उनके सामने फिर फिर भी वो उल्फत कर बेठे ||

हम तो उस के घर भी गए थे पर आज वो भी रूठ बैठी |
कभी हम जिंदगी से रूठ बैठे, कभी जिंदगी हम से रूठ बैठी||

सोमवार, 4 जून 2012

शहर का दस्तूर हो गया

अच्छा तुम्हारे शहर का दस्तूर हो गया
जिसको गले लगा लिया वो दूर हो गया

जो ख़ुशक़िस्मत हैं, बादल-बिजलियों पर शेर कहते हैं
लुटे आंगन में मौसम की तबाही, कौन पढ़ता है
कुछ लुटी अस्मत कुछ लूटे तारे इस तरह का ये शहर हो गया 

कागज में दब के मर गए कीड़े किताब के
दीवाना बे पढ़े-लिखे मशहूर हो गया
जहाँ दिन के उजालों का खुला व्यापार चलता हो
वहा उनको देखने को भी मैं मजबूर हो गया 

महलों में हमने कितने सितारे सजा दिये
लेकिन ज़मीं से चाँद बहुत दूर हो गया

तन्हाइयों ने तोड़ दी हम दोनों की अना
आईना बात करने पे मज़बूर हो गया

सुब्हे-विसाल पूछ रही है अज़ब सवाल
वो पास आ गया कि बहुत दूर हो गया

कुछ फल जरूर आयेंगे रोटी के पेड़ में
जिस दिन तेरा मतालबा मंज़ूर हो गया

इस कविता की कुछ पंक्तिया  बशीर जी की कविता से ली गई है 
इस कविता को दोबार  पोस्ट किया गया है 
दिनेश पारीक 



शुक्रवार, 1 जून 2012

मट मेला मेरा मन



जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ

कभी कहता है मन की काश मैं पैदा होता महलों में
दूर से दिखाई देता ना गूम होता भीड़ भरे मेलों में
लोग झुकते सजदे में पहनाते मालाओं का हार
मन बोला क्यों देखता है सपना तू तो है लाचार
येही तो हर दिन बुन रहा हूँ |
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ ||

अब तो खो गया हूँ झूठ और फरेब की दुनिया मैं
हर चेहरा हंस रहा है जूठी हंसी इस मेले मैं
मैं भी शामिल उन झूठे चेहरों में हूँ
मुख से दीखता भोला अन्दर से मेला हूँ
 तभी तो हर रोज़ एक फरेब बुन रहा हूँ

कभी उसकी कभी इसकी रोटी छीन रहा हूँ
जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ