बुधवार, 20 मई 2020

राजनीति के कुरुक्षेत्र में छिड़ गया युद्ध फिर आज

राजनीति के कुरुक्षेत्र में छिड़ गया युद्ध फिर आज

राजनीति के कुरुक्षेत्र में छिड़ गया युद्ध फिर आज
कभी बेबस कभी बेसहारा कभी मजबूर का मिल रहा ताज
प्यादा भी वहीँ रण भी वही सिर्फ बदला पक्ष और विपक्ष
जिनको बनकर स्तंभ चौथा करना था कार्य निष्पक्ष
कर लिया सौदा आज उसने संकट के इस क्षण में
कर लो तुम भी उनकी मृत्यु का सौदा आज उस रण में
मातृ भूमि क्षमा न करेगी तुम्हे इस कृत्य को
जब बांध के आँखों को तुम्हारी देगी सज़ा उसी कृत्य को
प्रजा राजा और रंक सभी खेल रहे खेल ऐसे
बेबस बेसहारा और मजबूर हो गया हर कोई जैसे
क्यों न दिखती तुमको एक बेबस तड़पते पिता की पुकार
जब वो आज रो रो कर दे रहा जीवन को धिक्कार
ASHISH C TRIPATHI

6 टिप्‍पणियां:

  1. काश ताज की जगह सब मिल के रोटी दे पाते ...

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  2. बेहतरीन अभिव्यक्ति !

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  3. सच बात कहु तो इस कविता की हर लाइन जैसे आज की राजनीति का आईना है। हमने अक्सर खुद कई बार देखा है कैसे हर संकट में सबसे ज़्यादा नुकसान उस आम आदमी का होता है, जो न पक्ष में होता है, न विपक्ष में। आपने जो “बेबस तड़पते पिता” की बात की है ना, वो सीधा दिल में उतर गई। कहीं न कहीं, हम सब उस दर्द से वाकिफ हैं, लेकिन बोल नहीं पाते।

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