भव्य पराभव के गर्भ से,
जन्मा एक ममता बिन्दु।
धरती सुपावन कर गया,
दयासागर, ममता-सिन्धु।।
अन्तर्मन की लीला में,
खेल खेलता रहा सगति।
समझ सका न मैं मूरख,
पूज न सका मैं मन्दमति।।
जलधि तीर मातृ गति देखी,
आर-पार दृष्टि प्रेम की फेंकी।
झकझोर गयी पल में जब माता,
इतना ममत्व कब मैं पाता।।
माता का हिय पढ़ रहा था,
निज भविष्य में बढ़ रहा था।
प्रकाश गति प्रेम की चारों ओर,
अंग-अंग सजग थे भाव-विभोर।।
सागर तट प्रफुल क्षण देखा,
प्रेम की गति का अमिट लेखा।
विस्मित था मैं देखा क्षण जब,
तरंगित रंगित प्रकृति का कण-कण।।
उस क्षण डूबा यह मन उसमें,
ममता का रूप-स्वरूप जिसमें।
माँ की ममता पहचान गया था,
प्रेम की गति जान गया था।।
फिर सम्मुख माता का मुख था,
प्रीत युक्त ममता का सुख था।
अनन्त युग के ममत्व का प्याला,
माता ने सरस-सरस सब डाला।।
अचानक शीतल-शान्त रूप देखा,
जिसने ममत्व शान्ति रस फेंका।
समझा प्रभु के प्रेम की माया,
इसलिए धरा पर माँ को जन्माया।।
रश्मि क्षेत्र में प्रकाश स्वर्णिम,
माँ की ममता की छटा अप्रतिम।
लाखों मनुजों में सुयोग्य भद्र मनु,
पवित्र प्रीति का रंगीन इन्द्रधनु।।
जिसके अन्तर में प्रेम समाया,
जीवन-कूल में ममता की माया।
अंग-अंग नित प्रीति रंग रंगित,
कण-कण ममता-प्रेम अभिव्यंजित।।
नरबध नगरी में प्रेम का रोहण,
नित्य प्रति मनुज ममता आरोहण।
मंत्र यहाँ मातृ-पुत्र प्रीति का,
उदधि कूल में मात गीति का।।
माता की गति थम गई ऐसे,
पवित्र प्रयाग से मिली हो जैसे।
प्रिय पुत्र को निज गले लगाया,
शीश करके ममता की छाया।।
प्रकृति स्तब्ध देख मधुर मिलन यह,
सागर छलकाता प्रेम आज बह।
चारों ओर खुशियाँ तब छायी,
पुत्र ने ज्यों अमूल्य निधि पायी।।
इसलिए ममता माता का सहज स्पंदन है,
मनुजत्व के लिए शीतल चन्दन है।
विकास का प्रथम प्रयाग माता के बन्धन में,
जो जन्माती हमको इस सुन्दर नन्दन में।।
इसलिए जग माता का विश्वास पूर्ण धन,
बरसेगा जलधि फूट फूल-अन्तर्मन।
तुम निश्चिन्त अपनी माता का ध्यान करो,
बेचैन मन माँ की ममता का प्राण भरो।।