मंगलवार, 30 नवंबर 2010

लेख बचपन : सिखाएं अपने बच्चों को दोस्त बनाने की कला

बच्चों से ज़रूरी कुछ भी नहीं हो सकता। वे हमारे परिवारों का भविष्य ही नहीं - हमारा संसार हैं। वे कैसे विकसित होते हैं यह केवल इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि उन्हें माता - पिता से कितना प्यार मिलता है या उन पर कितना पैसा खर्च किया जाता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि रोज़मर्रा के जीवन में बच्चों की समस्या को माता पिता कैसे सुलझाते हैं और माता पिता बच्चों के लालन - पालन के बारे में कितने सजग हैं और कितना जानते हैं।

जीवन के तनाव, व्यस्तताएं, व अन्य दबाव साधारण सी परिस्थिति को कठिन बना देते हैं। और वयस्क लोग अपना बचपन अकसर भूल जाया करते हैं - अपने बचपन की मज़ेदार भूलें और उसका आनन्द।

मेरी नातिन है... उसके माता पिता, ट्रान्सफर वाली नौकरी में हैं। हर तीन साल बाद नयी जगह, नया स्कूल, नये लोग, नये बच्चे, नया पड़ौस, नया माहौल...उस पर पिछले स्कूल के दोस्तों की याद। पिछली जगह की खूबसूरत जगहों की, पार्टियों की याद। वह एक लम्बे तनाव से गुज़रती है। वह थोड़ी अर्न्तमुखी और बुद्धिमान लड़की है...उसे नये दोस्त बनाने में काफी मुश्किल होती है। जबकि छोटी नातिन जल्द ही दोस्त बनाने की कला में माहिर है क्यों कि वह बातूनी है। छोटी मेरी बेटी पर गयी है। मैं और मेरे पति दोनों नौकरी करते थे और मेरी बेटी ने भी जगहें बदलने की परेशानियां झेली हैं पर वह कभी डिप्रेस नहीं हुई... जल्द ही दोस्त बनाने की आदत के चलते वह गांवों के स्कूलों में भी एडजस्ट हो जाती थी, हॉस्टल में छोड़ने पर वहां भी अपनी जगह बना ली थी उसने। जबकि मेरे बेटे को समस्या हो जाती थी और शुस्र् के दिनों में वह घर से निकलता ही नहीं था।

यही समस्या मेरी बड़ी नातिन के साथ है। वह नयी जगह जाकर खो सी जाती है। उसकी मां उसे बाहर भेजती है लेकिन सब व्यर्थ...।

यह गलती हर माता पिता करते हैं, वे यह सोच कर बच्चों को बाहर भेज देते हैं कि हर बच्चा अपने मित्र खुद बना लेता है, पार्क में जाकर या स्विमिंगपूल में या स्केटिंग करते हुए बच्चों की बीच। हालांकि माता पिता अपने बच्चे की पसंद नापसंद या उसकी अनुभूतियों को अपने ढंग से नहीं चला सकते क्योंकि हर व्यक्ति अपने आप में भिन्न स्वभाव का व भिन्न स्र्चियों का होता है। लेकिन बच्चे को रास्ता तो दिखाया जा सकता है। बच्चों को मित्र बनाने में सहायक होने के कई रास्ते हैं -

स्वयं शामिल हों - दोस्ती तब तक नहीं हो पाती जब तक कि एक बच्चा लगातार दूसरे बच्चे से मिलता जुलता रहे। यहां परिस्थितियां यह मांग करती हैं कि यह बीच का पुल माता - पिता बनें। अपने उन सहयोगियों से सामाजिक संबंध बनाएं जिनके यहां आपके बच्चों की उम्र के मित्र हों। पहले उन्हें आमंत्रित करें बच्चों के साथ, फिर उनके व अपने बच्चों के लिये अपने घर के लॉन में पिकनिक का आयोजन करें। यहां भी ट्रायल और एरर की पूरी संभावना रहती है। ज़रूरी नहीं कि आपका बच्चा उन बच्चों को पसंद करे। या वे बच्चे आपके बच्चे की मित्रता का उत्तर मित्रता से दे ही दें। अकसर ऐसा होता है बचपन में लड़के लड़कों के साथ खुश रहते हैं, लड़कियां अपनी हमउम्र सखियों के साथ। इस बात का ज़रूर ख्याल करें कि आपकी बिटिया आपके परिचितों के घर जाकर कार रेस देख देख कर बोर न जाए या आपका बेटा लड़कियों के बीच असहज सा न हो जाये। उन्हें कॉमन रूचियों वाले खेलों की तरफ प्रेरित करें वे जल्दी ही दोस्त बन जायेंगे।

आपकी कॉलोनी में या आपके कार्यालय के सहयोगियों के यहां होने वाली बच्चों की ग्रुप एक्टीविटी में बच्चों को अवश्य भेजें। अब तो समर कैंप भारत के हर छोटे बड़े शहर में आयोजित होते हैं। बच्चों को वहां भेजें।

नई स्र्चियों की तरफ प्रेरित करें - बच्चों में नई स्र्चियों का विकास करें, उन्हें डांस क्लास, स्विमिंग कोचिंग, मार्शल आर्टस जैसी कक्षाआें में जाने को प्रेरित करें। वहां उन्हें अपनी जैसी स्र्चि के कई बच्चे मिलेंगे जो उनके संभावित बेस्ट फ्रेण्ड हो सकते हैं।

उन्हें अपने निर्णय लेने की स्वतन्त्रता दें - हर माता पिता चाहता है, कक्षा का बेस्ट स्टूडेन्ट ही उनके बच्चे का दोस्त हो, कोई डफर, बदमाश नहीं। लेकिन यह गलत तरीका है। बच्चों में अपरिमित संभावनाएं होती हैं। वे किसी भी बच्चे को उसकी किसी भी अच्छाई के लिये पसन्द कर सकते हैं। अत: मित्र बनाने की उनकी पसंद पर अपनी पसंद न थोपें।
बच्चों की ग्रुप एक्टीविटी में भी उन्हें अपने निर्णय के लिये स्वतन्त्र छोड़े। मसलन पिकनिक पर आपकी बेटी की सारी सहेलियां पिंक कलर थीम रख रही हैं। और आप नहीं चाहती कि शुस्र् होती ठण्ड में आपकी बेटी वह स्लीवलैस पिंक ड्रेस पहने। उसे पहनने दें।

क्वालिटी न कि क्वांटिटी - हर एक बच्चा दूसरे से भिन्न होता है। उसकी सामाजिक ज़रूरतें भी भिन्न होती हैं। आप कभी ये न कहें कि - देखो सामने वाली शिप्रा की तो इतनी दोस्त हैं, तुम्हारी ले दे कर एक दोस्त है या बस दो।
ज़्यादा मित्रों से घिरा रहना हरेक बच्चे को पसन्द नहीं आता, उसे अपने लिये स्पेस चाहिये होता है।

बच्चों के सामने आदर्श प्रस्तुत करें - अपनी मित्रता निभाते हुए बच्चों के लिये आदर्श बनें। क्योंकि अपरोक्ष रूप से बच्चा बहत कुछ सीखता है। हर अच्छे - बुरे अवसरों पर मित्रों को फोन करें या घर जायें। कठिनाइयों में अपने मित्रों के साथ रहें। अपने मित्रों के गुणों को सराहें उनके दुर्गुणों की बच्चों के समक्ष चर्चा न करें। बच्चों को भी सच्ची मित्रता का पाठ पढ़ाएं।

ये छोटी छोटी बाते हैं जो माता पिता अपने बच्चों को एक खज़ाने की तरह विरासत में दे सकते हैं। जब माता पिता इस संसार में नहीं होंगे तो यही बातें उनके लिये कठिन, अंधेरे, तन्हा रास्तों में टॉर्च का काम करेंगी।
दिनेश पारीक  ०९०१५८४०५४४

माँ की ममता

भव्य पराभव के गर्भ से,
जन्मा एक ममता बिन्दु।
धरती सुपावन कर गया,
दयासागर, ममता-सिन्धु।।

अन्तर्मन की लीला में,
खेल खेलता रहा सगति।
समझ सका न मैं मूरख,
पूज न सका मैं मन्दमति।।

जलधि तीर मातृ गति देखी,
आर-पार दृष्टि प्रेम की फेंकी।
झकझोर गयी पल में जब माता,
इतना ममत्व कब मैं पाता।।

माता का हिय पढ़ रहा था,
निज भविष्य में बढ़ रहा था।
प्रकाश गति प्रेम की चारों ओर,
अंग-अंग सजग थे भाव-विभोर।।

सागर तट प्रफुल क्षण देखा,
प्रेम की गति का अमिट लेखा।
विस्मित था मैं देखा क्षण जब,
तरंगित रंगित प्रकृति का कण-कण।।

उस क्षण डूबा यह मन उसमें,
ममता का रूप-स्वरूप जिसमें।
माँ की ममता पहचान गया था,
प्रेम की गति जान गया था।।

फिर सम्मुख माता का मुख था,
प्रीत युक्त ममता का सुख था।
अनन्त युग के ममत्व का प्याला,
माता ने सरस-सरस सब डाला।।

अचानक शीतल-शान्त रूप देखा,
जिसने ममत्व शान्ति रस फेंका।
समझा प्रभु के प्रेम की माया,
इसलिए धरा पर माँ को जन्माया।।

रश्मि क्षेत्र में प्रकाश स्वर्णिम,
माँ की ममता की छटा अप्रतिम।
लाखों मनुजों में सुयोग्य भद्र मनु,
पवित्र प्रीति का रंगीन इन्द्रधनु।।

जिसके अन्तर में प्रेम समाया,
जीवन-कूल में ममता की माया।
अंग-अंग नित प्रीति रंग रंगित,
कण-कण ममता-प्रेम अभिव्यंजित।।

नरबध नगरी में प्रेम का रोहण,
नित्य प्रति मनुज ममता आरोहण।
मंत्र यहाँ मातृ-पुत्र प्रीति का,
उदधि कूल में मात गीति का।।

माता की गति थम गई ऐसे,
पवित्र प्रयाग से मिली हो जैसे।
प्रिय पुत्र को निज गले लगाया,
शीश करके ममता की छाया।।

प्रकृति स्तब्ध देख मधुर मिलन यह,
सागर छलकाता प्रेम आज बह।
चारों ओर खुशियाँ तब छायी,
पुत्र ने ज्यों अमूल्य निधि पायी।।

इसलिए ममता माता का सहज स्पंदन है,
मनुजत्व के लिए शीतल चन्दन है।
विकास का प्रथम प्रयाग माता के बन्धन में,
जो जन्माती हमको इस सुन्दर नन्दन में।।

इसलिए जग माता का विश्वास पूर्ण धन,
बरसेगा जलधि फूट फूल-अन्तर्मन।
तुम निश्चिन्त अपनी माता का ध्यान करो,
बेचैन मन माँ की ममता का प्राण भरो।।

अँधेरा

अँधेरा एक उपेक्षित
तिरस्कृत, आलोचित पक्ष
लेकिन, क्या......
अँधेरे की गहनता को
शीतलता 
    को,
अपूर्व 
 प्रभाव  को
अनूठी शान्ति को 
  
तुमने कभी परचा है,
परखा है 
?  जब वह बिखेरता है  मखमली, निस्तब्ध
इन्द्रजाल सी खामोशी
तो चीखती - चिल्लाती दुनिया
;
एकाएक सो जाती है
,
तनाव मुक्त हो जाती है
!
अस्वस्थ 
 स्वस्थ,
अमीर - गरीब,
राजा - रंक सभी को
बिना भेद भाव के
निद्रा की चादर ओढ़ा
शान्त बना देता है,
यह अँधेरा...........!
कैसा मानवतावादी,
कैसा समाजवादी,
यह अँधेरा............!
भ्रष्टाचार, प्रदूषण, अशान्ति
सब  ठहर  जाते  हैं,
कितना  प्रभावशाली,
कितना  शक्तिशाली,
किन्तु निरा अस्थायी ........!!
                                                                       दिनेश  पारीक 




अँधेरे के कुएँ से
अँधेरे के कुएँ से
ळगातार बाहर आते हुए
कई बार मुझे लगा है
कि सूरज और मेरे बीच की दूरी
स्थाई है।
वो जो रह रहकर
मेरी आँखें चौंधियायीं थीं
वे महज धूप के टुकड़े थे
या रौशनी की छायाएँ मात्र ।

सूरज मेरी आँखों के आगे नहीं आया कभी
भरोसा दिलाने के लिए
जिसे महसूसकर
अक्सर उग आता रहा है
मेरी आँखों में
एक पूरा आकाश।

न ही मैंने महसूसा कभी
कि कोई सूरज प्रवाहित है मेरी धमनियों में
मेरे रक्त की तरह
जैसा मैंने कभी कहीं पढ़ा था।

फिलहाल तो
एक अँधेरे से दूसरे अँधेरे तक की दूरी ही
मैंने बार बार पार की है
और सूरज से अपने रिश्ते को
पहचानने पचाने में ही
सारा वक्त निकल गया है
और मैं खड़ी हूँ
वक्त के उस मोड़ पर अकेली
एक शुरूआत की सम्भावना पर विचार करती
जहाँ से रोशनी की सम्भावनाएँ
समाप्त होती हैं।



एक मुट्ठी भर सपने

एक मुट्ठी भर सपने
तितली के पंखों की तरह उजाड क़र
किताब के पन्नों में दबा दिए जाएँ
और सोचने को रह जाय
एक लम्बी घुटन और हताशा के पश्चात पाये हुए
उन चंद सपनों के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाता
लगातार बदरंग होता चला जाता हुआ
अपना वर्त्तमान
तो क्या शेष रह जाता है?

तो क्या शेष रह जाता है
सिवाय इसके
कि एक बार फिर से
अंधेरे और यातना के
उसी लम्बे सफ़र पर
निकल पड़ा जाय
अपनी जिन्दगी की किताब
खुद और सिर्फ खुद के
हवाले कर ली जाय
जो रोशनी और रंग
अंधेरे के उस सफ़र में मिलें
उनसे कुछ बाकी बचे पन्ने
शौक से रंगे जायँ
और इस तरह
अवशिष्ट जो है
अर्थहीन होने से
बचा लिया जाय।

क्योंकि अबतक के जिए हुए
इस छोटे से जीवन में
बार बार के पलायन के बावजूद
लौटना हुआ है
और हर बार यही लगा है
कि जीवन ही सच है
और इसकी सार्थकता
जरूरी ...

मेरे जीवन को अर्थ देते
उसकी सम्पूर्णता का आश्वासन भरते
मेरे ये थोड़े से सपने ही तो हैं
मेरी मुटिठयों में बाँधे हुए
जो इन मुट्ठियों में
इतना दम आ गया है
कि मैं टकरा जाती हूँ
हर मुसीबत से ,
जीत जाती हूँ
हर बार...

अग्निशिखा

एक लपट उठी थी धरती के गर्भ से
आकाश को छू कर बरस पडी बूंदों में
सोख लीं वही बूंदें धरा ने
आया बसन्त तो
जन्म दिया पलाश के जलते फूलों को
एक बूंद अभागी
बरसी तो आकाश से
मगर न मिली धरा से
लिये अपना ज्वलन्त अस्तित्व
भटकी हवा में
कभी जलती दिये में 
कभी बहती लहर में
जुगनु सी जलती बुझती बूंद
एक रात के चौथे प्रहर में
स्वाति नक्षत्र में
एक प्यासे चातक ने
मुख खोला ही था 
बूंद के लाख मना करने पर भी
पी गया वह तृषित सा
जलती बूंद उतारता कैसे कंठ से?
जीवन भर 
सुलगती रही बूंद अग्निशिखा सी 
चातक के हृदय में 

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

यादें "हिन्दी" कविता की दुनियाँ

हिन्दी, उर्दू और हिन्दी में अनूदित काव्य के इस विशाल संकलन में आपका स्वागत है। यह एक खुली परियोजना है जिसके विकास में कोई भी भाग ले सकता है -आप भी! आपसे निवेदन है कि आप भी इस संकलन के परिवर्धन में सहायता करें। देखिये कविता कोश में आप किस तरह योगदान कर सकते हैं।

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यादें "हिन्दी" कविता की दुनियाँ

हिन्दी, उर्दू और हिन्दी में अनूदित काव्य के इस विशाल संकलन में आपका स्वागत है। यह एक खुली परियोजना है जिसके विकास में कोई भी भाग ले सकता है -आप भी! आपसे निवेदन है कि आप भी इस संकलन के परिवर्धन में सहायता करें। देखिये कविता कोश में आप किस तरह योगदान कर सकते हैं।

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