रविवार, 25 दिसंबर 2011

रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के साथ हिंदी संस्थान लखनऊ में


हिंदी संस्थान में श्री रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के साथ कवि कैलाश निगम, श्री गजेन्द्र सिंह पूर्व विधायक, जवाहर कपूर, वाई.एस लोहित एडवोकेट












रामनाथ सिंह अदम गोंडवी को सम्मान पत्र देते हुए नवीन सेठ, पूर्व विधायक गजेन्द्र सिंह, जवाहर कपूर, वाई एस लोहित







डॉ रामगोपाल वर्मा, बृजमोहन वर्मा , रणधीर सिंह सुमन सम्मान पत्र देते हुए रामनाथ सिंह अदम गोंडवी को








गजेन्द्र सिंह पूर्व विधायक व नवीन सेठ अंग वस्त्रं भेट करते हुए।






















नवीन सेठ श्री रामनाथ सिंह अदम गोंडवी के सम्मान में दो शब्द कहते हुए

रामनाथ सिंह अदम गोंडवी

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको


आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !



क्या जिस्म की टकसाल में


जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में
बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
जिसकी कीमत कुछ हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालना क्या जिस्म की टकसाल में

काजू भुनी प्लेट में ह्विस्की गिलास में

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में




प्रिय तुम


प्रिय तुम मेरे संग एक क्षण बाँट लो

वो क्षण आधा मेरा होगा

और आधा तुम्हारी गठरी में

नटखट बन जो खेलेगा मुझ संग

तुम्हारे स्पर्श का गंध लिये


प्रिय तुम ऐसा एक स्वप्न हार लो

बता जाये बात तुम्हारे मन की जो

मेरे पास आकर चुपके से

जब तुम सोते होगे भोले बन

सपना खेलता होगा मेरे नयनों में


प्रिय तुम वो रंग आज ला दो

जिसे तोडा था उस दिन तुमने

और मुझे दिखाये थे छल से

बादलों के झुरमुट के पीछे

छ: रंग झलकते इन्द्रधनुष के


प्रिय तुम वो बूंद रख लो सम्हाल कर

मेरे नयनों के भ्रम में जिस ने

बसाया था डेरा तुम्हारी आंखों में

उस खारे बूंद में ढूंढ लेना

कुछ चंचल सुंदर क्षण स्मृतियों के


प्रिय तुम...
********

रविवार, 18 दिसंबर 2011

यह शब्द नही भावना है, ज़रा महसूस करके देखो!♥

yaaden

1.
तेरी याद में आँख भर आई
तन्हाइयो से भारी यह जुदाई
तू न आया तेरी याद चली आई
इस दिल को बहाल करने थी आई

*
teri yaad mein ankh bhar aayi
tanhaiyo se bhari yeh judai
tu na aaya teri yaad chali aayi
is dil ko behal karne thi ayi

2.
आज तेरी कहानी फिर याद आई
आज आपनी जवानी फिर याद आई
उठी थी तेरी डॉली और मेरा जनाज़ा
आज ज़िंदगी के ज़ुल्मो के रुसवाई याद आई

*
Aaj teri kahani phir yaad aayi
aaj aapni jawani phir yaad aayi
uthi thi teri doli aur mera janaza
aaj zindgi ke zulmo ke ruswai yaad aayi

3.
तुझे याद नही आती यह भी सही
पेर मेरी मोहब्बत में क्या कमी रही
तनहा बैठे तेरे खुवब देखा करती हूँ
बस तेरी यादों के सहारे हूँ जी रही

*
Tujhe yaad nahi aati yeh bhi sahi
per meri mohabbat mein kya kami rahi
tanha baithe tere khuwab dekha karti hun
bas teri yaadon ke sahare hun jee rahi

4.
इस दिल मैं तू ही बस्ता है
सदा रहेता है दिल के करीब
मुझे छोड़ के जाने वाले
तेरी यादो के सहारे जीना मेरा नसीब

*
Is dil main tu hi basta hai
sada raheta hai dil ke kareeb
mujhe chod ke jaane wale
teri yaado ke sahare jeena mera naseeb


रविवार, 20 नवंबर 2011

माँ कुछ दिन तू और न जाती,

माँ! कुछ दिन

माँ! कुछ दिन तू और न जाती,

मैं ही नहीं बहू भी कहती,

कहते सारे पोते नाती,

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

रोज़ सबेरे मुझे जगाना,

बैठ पलंग पर भजन सुनाना,

राम कृष्ण के अनुपम किस्से,

तेरी दिनचर्या के हिस्से,

पूजा के तू कमल बनाती।

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

हरिद्वार तुझको ले जाता,

गंगा जी में स्नान कराता,

माँ केला की जोत कराता,

धीरे-धीरे पाँव दबाता,

तू जब भी थक कर सो जाती।

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

कमरे का वो सूना कोना,

चलना फिरना खाना सोना,

रोज़ सुबह ठाकुर नहलाना,

बच्चों का तुझको टहलाना,

जिसको तू देती थी रोटी,

गैया आकर रोज़ रंभाती।

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

सुबह देर तक सोता रहता,

घुटता मन में रोता रहता,

बच्चे तेरी बातें करते,

तब आँखों से आँसू झरते,

माँ अब तू क्यों न सहलाती।

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

अब जब से तू चली गई है,

मुरझा मन की कली गई है,

थी ममत्व की सुन्दर मूरत,

तेरी वो भोली-सी सूरत,

दृढ़ निश्चय औ' वज्र इरादे,

मन गुलाब की कोमल पाती।

माँ! कुछ दिन तू और न जाती।

गुरुवार, 17 नवंबर 2011

प्रदेश विभाजन - फिर देश विभाजन


हमारे प्रदेश उत्तर प्रदेश में 2007 से 2010 तक नेशनल रुरल हेल्थ मिशन के तहत 7200 करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं। जिसमें लगभग 3500 करोड़ का घोटाला हुआ है प्रदेश सरकार के कई मंत्री लोकायुक्त जांच के बाद हटाये जा चुके हैं और कई मंत्री विभिन्न अपराधों में जेल की शोभा बाधा रहे हैं। अराजकता का बोलबाला है। सरकार की माली हालत यह है कि आये दिन मुख्यमंत्री मायावती केंद्र सरकार से गोहार लगाती हैं इस योजना के लिये पैकेज दो और कभी-कभी वेतन बांटने के लिये विभिन्न वित्तीय हथकंडे अपनाये जाते हैं। उत्तर प्रदेश निश्चित रूप से 75 जिलो वाला बड़ा प्रदेश है। जिसकी व्यवस्था की जिम्मेदारी सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के हाथों में है। और वह व्यवस्था प्रदेश की करने में असमर्थ पाकर चार भागों में प्रदेश को बांटने का संकल्प विधानसभा में पारित करने जा रही है बुंदेलखंड, अवध प्रदेश, पूर्वांचल और पश्चिम प्रदेश के नाम के नए राज्य होंगे एक- एक प्रदेश की राजधानी के निर्माण हेतु लाखों लाख करोड़ की आवश्यकता होगी जिससे जनता के ऊपर करो का और बोझ डाला जायेगा प्रदेश में छोटे-छोटे जिले मायावती सरकार ने बनाये हैं जिनमें आज भी समुचित प्रारंभिक व्यवस्था तक नही कर पायी हैं कुछ प्रस्तावित नए प्रदेशों को अपने राज्य की नौकरशाही कर्मचारियों को वेतन देने के लिये हमेशा कोई कोई वित्तीय हथकंडा अपनाना पड़ेगा हाँ अवध प्रदेश की राजधानी यदि लखनऊ होती हैं तो मूर्तियों के आशीर्वाद से शायद कोई चमत्कार हो जाए कुछ लोगों का तर्क यह हो सकता है कि छोटे राज्यों के होने से विकास होगा किन्तु वास्तव में ऐसा नही है कंक्रीट की दीवार खड़ा कर देने का नाम विकास समझते हैं वास्तविक धरातल पर देखा जाए तो आम जनता की थाली से अरहर की दाल काफी पहले गायब हो चुकी है पढाई लिखाई के लिये फीस देने के लिये बैंको से लोन लेना पड़ रहा है नए प्रदेशों के बनने के बाद भ्रष्टाचारी तबकों की एक ऐसी बढ़ आती है कि आम आदमी के पास कुछ बचता ही नहीं है
चुनाव आ रहे हैं अपने काले कारनामो की तरफ से राजनितिक दल जनता की भवनों से खेल रहे हैं। कुर्सी पाने के लिये तरह-तरह के राग अलापे जा रहे हैं मुख्यमंत्री मायावती ने अपने सरकार के काले कारनामो को छिपाने के लिये प्रदेश विभाजन का संकल्प विधानसभा में पारित करने का लिया है जिससे प्रदेश में विभाजन को लेकर जनता तू-तू मैं-मैं करने लगे और जनता की विकास सम्बन्धी भावनाओ का लाभ उठा कर पुन: राज्य सरकार स्थापित की जा सके। वास्तव में यह पृथक्तावादी सोच के राजनेता अगर केंद्र सरकार की कुर्सी के ऊपर बैठे हों और अपने काले कारनामो को छिपाने के लिये तथा पुन: सत्ता में आने के लिये देश का विभाजन भी कर सकते हैं इसके पीछे भी उनका तर्क होगा कि देश में हजारो समस्याएं है जिनका समाधान इतने बड़े मुल्क में करना संभव नही है

सुमन
लो क सं घ र्ष !

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