शुक्रवार, 1 जून 2012

मट मेला मेरा मन



जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ

कभी कहता है मन की काश मैं पैदा होता महलों में
दूर से दिखाई देता ना गूम होता भीड़ भरे मेलों में
लोग झुकते सजदे में पहनाते मालाओं का हार
मन बोला क्यों देखता है सपना तू तो है लाचार
येही तो हर दिन बुन रहा हूँ |
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ ||

अब तो खो गया हूँ झूठ और फरेब की दुनिया मैं
हर चेहरा हंस रहा है जूठी हंसी इस मेले मैं
मैं भी शामिल उन झूठे चेहरों में हूँ
मुख से दीखता भोला अन्दर से मेला हूँ
 तभी तो हर रोज़ एक फरेब बुन रहा हूँ

कभी उसकी कभी इसकी रोटी छीन रहा हूँ
जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ

6 टिप्‍पणियां:

  1. Farebo ki is duniya mein achha rah pana Bahut mushkil hai aaj ...

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  2. जिंदगी के इंद्रधनुषी रंग भी बेशुमार है।

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  3. झूट और फरेब से बचना कितना मुश्किल । सामयिक और सटीक ।

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  4. अब तो खो गया हूँ झूठ और फरेब की दुनिया मैं
    हर चेहरा हंस रहा है जूठी हंसी इस मेले मैं

    बहुत ही कठिन है आज की बुराईओं से खुद को बचाकर रखना .... लेकिन बचने की कोशिश जारी रहनी चाहिए !
    इस सुंदर रचना के लिए बधाई !!

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