जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ
कभी कहता है मन की काश मैं पैदा होता महलों में
दूर से दिखाई देता ना गूम होता भीड़ भरे मेलों में
लोग झुकते सजदे में पहनाते मालाओं का हार
मन बोला क्यों देखता है सपना तू तो है लाचार
येही तो हर दिन बुन रहा हूँ |
बुराइयों का छोटा सा घर भी तो बुन रहा हूँ ||
अब तो खो गया हूँ झूठ और फरेब की दुनिया मैं
हर चेहरा हंस रहा है जूठी हंसी इस मेले मैं
मैं भी शामिल उन झूठे चेहरों में हूँ
मुख से दीखता भोला अन्दर से मेला हूँ
तभी तो हर रोज़ एक फरेब बुन रहा हूँ
कभी उसकी कभी इसकी रोटी छीन रहा हूँ
जीवन की अधर अगनि में तो जल ही रहा हूँ
Farebo ki is duniya mein achha rah pana Bahut mushkil hai aaj ...
जवाब देंहटाएंजिंदगी के इंद्रधनुषी रंग भी बेशुमार है।
जवाब देंहटाएंwah... bahut khub!
जवाब देंहटाएंझूट और फरेब से बचना कितना मुश्किल । सामयिक और सटीक ।
जवाब देंहटाएंअब तो खो गया हूँ झूठ और फरेब की दुनिया मैं
जवाब देंहटाएंहर चेहरा हंस रहा है जूठी हंसी इस मेले मैं
बहुत ही कठिन है आज की बुराईओं से खुद को बचाकर रखना .... लेकिन बचने की कोशिश जारी रहनी चाहिए !
इस सुंदर रचना के लिए बधाई !!
बेहद उम्दा भाव !
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के लिए आपका बहुत बहुत आभार - आपकी पोस्ट को शामिल किया गया है 'ब्लॉग बुलेटिन' पर - पधारें - और डालें एक नज़र - कहीं छुट्टियाँ ... छुट्टी न कर दें ... ज़रा गौर करें - ब्लॉग बुलेटिन