जब उठाया घूंघट तुमने,
दिखाया मुखड़ा अपना
चाँद भी भरमाया
जब बिखरी तुम्हारे रूप की छटा
चाँदनी भी शरमायी
तुम्हारी चितवन पर
आवारा बादल ने सीटी बजाई ।
तुमने ली अगंड़ाई, अम्बर की बन आई
तुमसे मिलन की चाह में फैला दी बाहें,
क्षितिज तक उसने
भर लिया अंक में तुम्हें, प्रकृति, उसने
तुम्हारे गदराये बदन, मदमाते यौवन पर,
भँवरे की तरह
फिदा होकर, तुम्हारे रसीले होठों से
रसपान किया उसने ।
नारी ने तुमसे ही सीखा श्रृंगार, प्रकृति
पुरुष ने सीखी मनुहार
एक रिश्ता कायम हुआ फिर
‘समर्पण’ का
पुरुष की कठोरता और
नारी की मधुरता का
पुरुष की मनुहार और
नारी की लज्जा का
पुरुष और प्रकृति एकाकार हुए
बहुत सुन्दर..
जवाब देंहटाएंपुरुष और प्रकृति एकाकार हुए..
वाह!!
पुरुष की कठोरता और
जवाब देंहटाएंनारी की मधुरता का
पुरुष की मनुहार और
नारी की लज्जा का
पुरुष और प्रकृति एकाकार हुए .......nice one .
बहुत बढ़िया!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भाव......
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंवाह बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंआपकी रचनाए बहुत सुंदर लगी
जवाब देंहटाएंआप मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी अपनी प्रतिक्रिया देवे
हतत्प://वानगायडिनेश.ब्लॉगस्पोट.इन/
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