शनिवार, 7 सितंबर 2013

रिश्ते


रिश्तों से  निकल कर भी उनके  नजदीक आ जाती  हूँ 
हर बार कस्ती  डूबती है पर मैं किनारे ले आती  हूँ
मोती  चुन 2 कर इस रिश्तों  को पिरोती हूँ 
हर एक रिश्तों को अपने दिल में  संजोती हूँ 
पता है मुझे ये न रहेगे साथ मैं 
पता है मुझे फिर एक दिन टूटेगे  
ना  रहे  एक साथ मैं 
हर दिन ऑंखें पानी  छलक  जाती हैं 
फिर दिल कहता है 
अभी तो आँखों के पानी का घड़ा  भरा भी नहीं है 
आधी जिन्दगी  तो बीत  गई  
आधी  कैसे बिताऊ ? ये सोच कर रह जताती हूँ 
कुछ अपनों  का गिला है कुछ पराया 
हर बात को तो मैं तराजू  से भी कडा  तोलती हूँ 
फिर भी रिश्ते तो यही कहते हैं 
मैं ही बहुत भला बुरा बोलती हूँ 
इन अंशुओ  को तो मैं रोक लूगी 
इन तनहइयो को भी सह लूगी
कोशिस  करती हूँ इन रिश्तों  से आजादी पाने को 
फिर भी हर सुबह  इन के नजदीक आ जाती हूँ 
दिनेश पारीक 



शनिवार, 10 अगस्त 2013

किसी ने सच कहा है


किसी ने सच कहा है
दिल से ज्यादा  कोई उपजाऊ  जगह हो ही नहीं सकती
क्यों की
यह कुछ भी बोया जा सकता है
फिर चाहे प्यार हो या नफरत

मंगलवार, 25 जून 2013

मुझे माँ बना दे


काश उपर वाला मुझे लडकी बना दे
और फिर मुझे एक लड़की की माँ बना दे |
वो सकून, वो , वो दर्द, कोई मुझे भी दिला दे,
कोई मुझे एक लड़की के कपडे ही पहना  दे ||
मैं भी उसे अपने गर्भ में रखती , उसको महसूस करती
मेरी सांसो से साँस लेती , उस की बातो को महसूस करती
और नहीं तो कोई मुझे माँ का अस्तित्व ही समझा दे ||

हर दिन   मैं उसका सपना अपनी उसका सपना देखती
वो दिन भी गिनती जब वो इस संसार  को देखती
कब वो आये कब मुझे माँ बुलाये
कोई  अपनी बेटी मुझे एक दिन के लिए उधार देदे
वो न हो सके तो मुझे माँ कहने का अधिकार देदे

 मैं अब असे ही मानता हूँ  आज उसका जनम हो गया
मेरा एक सपना सपने में ही आज झूठ सा सुच हो गया
उस को देख देख कर हँसती, फिर उसको सिने से लगा लेती
कितनी प्यारी गुडिया है , उसके माथे पर कला टिका लगा देती
हे असमान हे धरती आप ही मुझे महसूस कर व दो
कोई तो सुने मेरी पुकार मुझे एक लड़की बना दे ||

 हे असमान हर नजरो से से कह दो  मेरी पुकार
हर आदमी से कह दो मेरी ये सदा
हर मनुष्य से कह दो जो सोचते है मेरी बेटी को ?
कोई तो मुझे इन को बंद करने का अधिकार दिला दो
 ये न  हो सके  तो  मुझे इस धरती से उठा दो

काश उपर वाला मुझे लडकी बना दे
और फिर मुझे एक लड़की की माँ बना दे |

दिनेश पारीक

शनिवार, 18 मई 2013

मुसाफिर हैं हम



मुसाफिर  हैं हम  मुसाफिर  हो तुम भी 
कही न कही  फिर किसी मोड़  पर मुलाकात होगी 
बे नाम  मुसफ़िर हूँ  बे- नाम सफर  है मेरा 
फिर न जाने  किस रोज़  मिलने  की शोगात होगी 
किस दिन कहा  निकल  जाऊं  कह नहीं सकता 
जिस दिन तुम कहो मुझे मिलने को 
क्या पता उस दिन में कही मिल  नहीं सकता 
बे-नाम  मेरी जिंदगी  बे-नाम ठिकाना है 
किस दर पर में रुक जाऊं कुछ कह नहीं सकता 
बस तेरी एक मुलाकात  भी मेरी जिंदगी  की शोगत  होगी 
कसम  है मेरी  मोहबत  की फिर ना  कहूँगा 
की आप  से एक और  मुलाकात होगी 
तिनके की तरह  बह  जाऊंगा  आपकी यादों में 
समदर में  मिल जाऊँगा यादों  के किनारे  लग जाऊँगा 
मिल जायेगीं ताबीर  मेरे  ख्वाबों  की एक दिन 
ये ख्वाब  कब बिखर  जाये कुछ कह नहीं सकता 
कब  दिन निकले  कब श्याम  होगी 
कब तुम से में मिलु कब जिन्दगी आपके  नाम होगी 
दिनेश पारीक 

शनिवार, 11 मई 2013

ये जो जिंदगी की किताब


ये जो  जिंदगी की किताब है ये किताब भी कोई किताब है
कही अंधेरों का ख्वाब है तो कही रोशनी  का हिजाब है ।।
कही उठते धुवें का जवाब है कही बुझते चिराग का हिसाब है 
कही सितारों का चिराग है कही पर रौशनी का नकाब है ।।
कही छावं कही धुप है कही औरों का ही रूप है 
कही कागज के फूल है तो कही इन फूलों में भी खोफ है ।।
कही पर चैन लेती है ये ख़ुशी कही पर मेहरबान होता है ये नसीब
कही खुशियों  में भी गम कही दूर  रह कर भी होता है करीब ।।
कहीं बरकतों के हैं बारिशें कहीं तिश्नगी  बेहिसाब है ।।
कही होटों पर आंसू हैं तो कही आँखों में खिजाब 
कही बेटी पर जुल्म हिसाब  तो कही नारी है बरकत की किताब ।।
कही दोलत का नकाब तो कही गरीबी है बेसुमार 
कही इंसान का नारी पर अत्यचार पर अत्यचार ।।
कही नारी है माँ का अवतार  कही बहु का परोपकार 
कही ये बंद किताब तो कही ये खुली  किताब  ।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
ये जो जिंदगी की किताब है ये किताब भी कोई किताब है।।।।।।
दिनेश पारीक