शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

बोलो खरीदोगे ?

बोलो खरीदोगे ?
यहाँ जिंदगी बिकती है बिकती है मौत यहाँ 
यहाँ लाश बिकती है बिकता है जिश्म यहाँ 
यहाँ भक्त बिकते  है बिकते है भगवान यहाँ 
 बोलो खरीदोगे ?
यहाँ डाक्टर बिकते है बिकते है ईमान यहाँ 
बिकते है नेता यहाँ बिकती है जुबान यहाँ 
बिकते है अपराध यहाँ बेचती  है पुलिस यहाँ  

बोलो खरीदोगे ?
बिकती है इज्ज़त यहाँ बिकती है शर्म हया
बिकती है बेटी यहाँ बिकती है बहने यहाँ 
बिकती है ममता यहाँ बेचती  है माँ  यहाँ   

बोलो खरीदोगे ?
बिक रहा है ईमान यहाँ बेच रहे ईमानदारी  यहाँ 
बिक रहा गुनाह यहाँ बेच रहे गुनहगार यहाँ   
बिक रहा देश यहाँ बिक रहे देशवाशी यहाँ

बोलो खरीदोगे ? 
आशीष त्रिपाठी 

रविवार, 12 फ़रवरी 2012

ये उनका शहर है!

भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कम्पनी के कारखाने से एक हानिकारक गैस का रिसाव हुआ जिससे लगभग 15000 से अधिक लोगो की जान गई तथा बहुत सारे लोग अंधापन के शिकार हुए. भोपाल गैस काण्ड विश्व इतिहास का ऐसा नासूर है जो हर दिसम्बर मे बहुत बुरी टीस देता है. हालाँकि, इस घटना से पीड़ित लोगो की संख्या लाखो मे है और वहाँ जन्म लेने वाले बच्चे अब भी अपंग पैदा होते है. मुझे ये नहीं जानना की किसकी गलती है है…..मुझे बस 26 सालो के दर्द की दवा और उन करोडो आंसुओ को पोछने वाले हाथ चाहिए जिनसे सत्ता और पैसे की गंध ना आये.
जब भोपाल गैस काण्ड के दोषियों की बात होती है तो ऐसा लगता है हर चीज़ उन्होंने खरीद ली है…शायद ये शहर भी! ये ग़ज़ल भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी है.
ये उनका शहर है!
कातिल आँधियों मे किसका ये असर है?
दिखता क्यों नहीं है हवा मे जो ज़हर है?
चीखें सूखती सी कहाँ मेरा बशर है?
ये उनका शहर है….
धुँधला आसमां क्यों शाम-ओ-सहर है?
आदमखोर जैसा लगता क्यों सफ़र है?
ढलता क्यों नहीं है ये कैसा पहर है?
ये उनका शहर है….
जानें लीलती है ख़ूनी जो नहर है.
माझी क्यों ना समझे कश्ती पर लहर है?
हुआ एक जैसा सबका क्यों हषर है?
ये उनका शहर है…
रोके क्यों ना रुकता…हर दम ये कहर है?
है सबके जो ऊपर..कहाँ उसकी मेहर है?
जानी तेरी रहमत किस्मत जो सिफर है!
ये उनका शहर है….
इंसानों को तोले दौलत का ग़दर है!
नज़र जाए जहाँ तक मौत का मंज़र है!
उजड़ी बस्तियों मे मेरा घर किधर है?
ये उनका शहर

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

अगर तुम होती ...

अगर तुम होती ...
अगर तुम होती तो ऐसा होता
अगर तुम होती तो वैसा होता माँ.....
आज मैं दूर हु अपनी माँ से मैं मजबूर हु, अपने आप से
कभी थक कर आता था घर ..माँ का आंचल पता था भर
थकावट दूर होती थी मिलो की ..एक नई सुबह होती थी उम्मीदों की ...
अगर तुम होती तो ऐसा होता
अगर तुम होती तो वैसा होता , माँ...
जब भूखा होता था तो खिलाती थी खाना
आज अपनी ही बनी जली रोटी हु खाता
जब करता था शैतानी तो देती थी सजा
आज मेरे पास है पैसा मस्ती और मज़ा
पर नहीं है तो वो प्यारी माँ और उसकी सजा
जब चलते चलते गिरता था जमीन पर जब सोते सोते रोता था रातो में
तब एक माँ ही थी जो उठती सहलाती थी और दवा लगाती थी
आज रोते रोते सोता हु माँ की यादो में
और गिर गिर कर चलता हु बिन माँ के सहारे से
अगर तुम होती तो ऐसा होता
अगर तुम होती तो वैसा होता , माँ....
पैसो का मोल समझाती थी माँ संस्कारो की दौलत देती थी माँ
आज पैसा भी है मेरे पास संस्कारो की दौलत भी है मेरे पास
अगर नहीं है कुछ तो वो प्यारी माँ मेरे पास
वो माँ का गलतियों पर डाटना और अछाइयो पर गुडडन कहना
लेकिन अब कोई बेटा अपनी माँ को अलविदा कहना
क्योकि आज परदेश में आकर ...अकेले में अपने आप से हु पूछता
की बिन माँ के बेटा कैसा होता है
अगर माँ होती तो ऐसा होता है
अगर माँ होती तो वैसा होता है ....
आशीष त्रिपाठी के द्वारा 

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

पत्नियाँ

डूबती इक नाव होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में मुस्कुराती पत्नियाँ।

बेसुरा संगीत होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में गुनगुनाती पत्नियाँ।

गूंजता अट्टहास होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में खिलखिलाती पत्नियाँ।

मौन सा आकाश होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में गीत गातीं पत्नियाँ।

खाली बर्तन जैसे बजती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में टनटनाती पत्नियाँ।

बिन मसाला मिर्च होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में सनसनाती पत्नियाँ।

कितनी बेआवाज होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में खनखनाती पत्नियाँ।

रेंगती रफ़्तार होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में सरसराती पत्नियाँ।

बंधा बिस्तरबंद होती आदमी की जिंदगी,
ग़र न होतीं जिंदगी में कुरमुराती पत्नियाँ।

बुधवार, 8 फ़रवरी 2012

पुरुष और प्रकृति

जब उठाया घूंघट तुमने,
दिखाया मुखड़ा अपना
चाँद भी भरमाया
जब बिखरी तुम्हारे रूप की छटा
चाँदनी भी शरमायी
तुम्हारी चितवन पर
आवारा बादल ने सीटी बजाई ।
तुमने ली अगंड़ाई, अम्बर की बन आई
तुमसे मिलन की चाह में फैला दी बाहें,
क्षितिज तक उसने
भर लिया अंक में तुम्हें, प्रकृति, उसने
तुम्हारे गदराये बदन, मदमाते यौवन पर,
भँवरे की तरह
फिदा होकर, तुम्हारे रसीले होठों से
रसपान किया उसने ।
नारी ने तुमसे ही सीखा श्रृंगार, प्रकृति
पुरुष ने सीखी मनुहार
एक रिश्ता कायम हुआ फिर
‘समर्पण’ का
पुरुष की कठोरता और
नारी की मधुरता का
पुरुष की मनुहार और
नारी की लज्जा का
पुरुष और प्रकृति एकाकार हुए