गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

अब और सहन नहीं होता है


अब और सहन  नहीं  होता है 

देख  इस देश  की हालत  उस दिन अखबार  मैं 
इस कड़क  ती  ठंड  मैं पसीने  की बूंद   भी  खून  बन  गई 
एक बेटी , बहन  की इज्जत  तार - तार-
देख  कर भी लोगो  से यही सुना  दिल्ली  तो दिलवालों 
की हैं 
गलियाँ  बदल  लो , रास्ता  बदल  लो 
अपना  चेहरा  ढक  लो  अपना पहनावा  बदलो 
पर मैं पूछता हूँ  की ये इन्सान  किस फेक्टरी  मैं बदने जाऊ  मैं 
इन  पुरषों  को  कैसा  नकाब  पहनाऊ 
इन से बचने के लिए मैं  कैसा  जिस्म  बनवाऊ 
इस प्रेम  की परीभाषा  कैसे  समझाऊ 

उस  की बीवी  मर गई थी  वो बहुत हतास  था 
वो तो मनोरोगी था उस की यादास्त  ठीक नहीं थी 
क्या ये कारण  काफी है  एक बलात्कारी  को बचाने 
और एक बलात्कारी से सहानुभूति  रखने के लिए 
कानून  को दोष  कब तक देने  हम सब का दाईत्व 
पूरा हो जाता है

15 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामीदिसंबर 27, 2012

    "ये इन्सान किस फेक्टरी मैं बदने जाऊ मैं
    इन पुरषों को कैसा नकाब पहनाऊ
    इन से बचने के लिए मैं कैसा जिस्म बनवाऊ
    इस प्रेम की परीभाषा कैसे समझाऊ"



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  2. kya bolun...bolne kay liye kuch nahi...man dukh aur rosh say bhara hai....sahanubhuti wo bhi darindo say...bilkul nahi karni chahiyee

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  3. प्रिय दिनेश बहुत प्यारी पंक्ति उत्तम सन्देश

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  4. jane insaan bhool kyo jata hai , ghar me uski bhi maa, bahan -betiya hai ..

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  5. ्सार्थक प्रश्न करती सटीक अभिव्यक्ति।

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  6. jo aise manorogi ka paksh leta hai use bhi fansi par latka dena chahiye ......

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  7. सच कहा है आपने ... बहाने हैं सब ... अपने जुर्म को छुपाने के ...
    सार्थक प्रस्तुति ..

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  8. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  9. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (28-12-2012) के चर्चा मंच-११०७ (आओ नूतन वर्ष मनायें) पर भी होगी!
    सूचनार्थ...!

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  10. बहुत सुंदर एवं बहुत ही भाव-प्रवण कविता । मेरे पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा। धन्यवाद।

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  11. मनोभावना मीत आप की,छूती 'मनका छोर'|
    'नारी पीड़ा'से भीगी है,सब के'नयन की कोए'|\

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  12. इन से बचने के लिए मैं कैसा जिस्म बनवाऊ
    इस प्रेम की परीभाषा कैसे समझाऊ


    ak angara jo mn me tha ab shbdon me bikher diya apne .....abhar ke sath hi badhai bhi .

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