आज सुबह उठ कर चाय भी नहीं पी और सोचने बैठ गया
रात कुछ सोच कर सोया था की कल कुछ नया करुगा
पर आज फिर मैं अपने मन को ही कचोटने बैठ गया
सोच था कुछ नया कर गुजरुगा
पर मैं अपने आप को ही खाने बैठ गया
कल का हिसाब लगाना था पर ?
मैं हर साल का हिसाब लगाने बैठ गया
हिसाब लगाने के चक्कर मैं सारा दिन निकल गया
देखना था मुझे सुबह सूरज
और अब डूबता सूरज को देखते .....................
लिखना था कुछ और
लिखता चला गया कुछ और
दिनेश पारीक
ऐसा ही होता है और जीवन यूँ ही निकल जाता है
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