गुरुवार, 29 नवंबर 2012

रोशनी -रोशनी

देखने का तो मन था की चाँद देखते हैं  पर 
आज टिमटिमाते तारो को देख ने लग गया 
ये  भी इतनी दुरी से केसे टिमटिमाते  रहते है
अपना एक संसार से लगता है उनका 
कोई भाई कोई कुछ हर एक रिश्तो मैं  बंधे  लगते है 
ये सब देख चेहरा मुरझा सा जाता है 
ये अपनी दुजिया बेगानी सी लगती है 
जैसे  कड़ी धुप मैं इस दुनिया का रंग उड़ गया हो 
और उस सूरज से रोशनी पाकर ये तारे टीम तिमाते रहते हैं 
वही रौशनी पाकर हम कैसे   कम करते रहते हैं 
न गम देखने को मिला न कोई शिकवा 
न धुप थी वह ना अँधेरा 
दुसरो से पारकर रौशनी  फिर भी कहते हैं 
हमारा भी होता है सवेरा 
काश ये मुझे भी कोई समझा दे  
सवेरा होकर भी नहीं होता सवेरा 
कोई मुझे देदे वो रोशनी जिसे कर दू इस दुनिया में सवेरा 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन
    गहरे भाव लिए रचना..
    सुन्दर:-)

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  2. आपके अद्भुत लेखन को नमन
    बहुत सराहनीय प्रस्तुति.
    बहुत सुंदर

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  3. साहस की कोई सीमा नहीं ओर साहस कही भी मिलता नहीं

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