एक अनोखी अंतहीन यात्रा
ना कहो इसे बिंदू या मात्रा!
समय के चक्रव्यूह से परे
निर्विकार, निर्मल और स्फूर्ति भरे
उस ‘स्वयं’ को खोजने चले!
जो देख के भी ना दिखे
जो समझ के भी जटिल रहे!
जो ज्ञात हो के भी अज्ञात लगे!
यह विशालकाए समुन्द्र
में उस कुचली हुई छोटी सी बूँद
के अस्तित्व के समान है
जो, ओझल और तिरस्कृत होते हुए भी
अपने होने का आभास कराती है!
कोई कहे, ज्ञान से इसको पा लो
कोई बिरला चाहे, ध्यान से इसमें समा लो
कोई इसे कर्म में ढूंढे,
स्वयं फिर भी अपरिचित लगे!
स्वयं का यही सार
जीवन के है दिन चार
खुशिया लुटाओ खुले हाथ
लिए संग अपनों को साथ
भावनाओ को जीओ भरपूर
ना रहो, स्वयं से दूर
भीग जाओ मधुर क्षणों के रस में
अनुभव करो स्वतंत्रता हसी में
सपनो पर रखो पूरा विश्वास
छोड़ना नहीं कभी तुम आस
यही है, तुम्हारे होने का प्रयास
सच्चा, स्वयं का आभास!
अपने होने का अर्थ खोजती सुन्दर रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब , शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंकृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधार कर अपना स्नेहाशीष प्रदान करें
बहुत सुन्दर..सार्थक रचना..मेरे ब्लांग्में आने के लिए आभार....
जवाब देंहटाएंबहुत ही उम्दा और दिल को छूने वाली रचना ...
जवाब देंहटाएंआप के ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ , ख़ुशी हुई आप के ब्लॉग पर आकर...फोलो कर रही हूँ,उम्मीद है आना जाना लगा रहेगा .......
भीग जाओ मधुर क्षणों के रस में
जवाब देंहटाएंअनुभव करो स्वतंत्रता हसी में
सपनो पर रखो पूरा विश्वास
छोड़ना नहीं कभी तुम आस
यही है, तुम्हारे होने का प्रयास
सच्चा, स्वयं का आभास!
बहुत ही सुंदक अभिव्यक्ति । मेरे पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।