रिश्तों से निकल कर भी उनके नजदीक आ जाती हूँ
हर बार कस्ती डूबती है पर मैं किनारे ले आती हूँ
मोती चुन 2 कर इस रिश्तों को पिरोती हूँ
हर एक रिश्तों को अपने दिल में संजोती हूँ
पता है मुझे ये न रहेगे साथ मैं
पता है मुझे फिर एक दिन टूटेगे
ना रहे एक साथ मैं
ना रहे एक साथ मैं
हर दिन ऑंखें पानी छलक जाती हैं
फिर दिल कहता है
अभी तो आँखों के पानी का घड़ा भरा भी नहीं है
आधी जिन्दगी तो बीत गई
आधी कैसे बिताऊ ? ये सोच कर रह जताती हूँ
कुछ अपनों का गिला है कुछ पराया
हर बात को तो मैं तराजू से भी कडा तोलती हूँ
फिर भी रिश्ते तो यही कहते हैं
मैं ही बहुत भला बुरा बोलती हूँ
इन अंशुओ को तो मैं रोक लूगी
इन तनहइयो को भी सह लूगी
कोशिस करती हूँ इन रिश्तों से आजादी पाने को
फिर भी हर सुबह इन के नजदीक आ जाती हूँ
दिनेश पारीक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल में शामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल {रविवार} 8/09/2013 को मैं रह गया अकेला ..... - हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल - अंकः003 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें। कृपया आप भी पधारें, आपके विचार मेरे लिए "अमोल" होंगें | आपके नकारत्मक व सकारत्मक विचारों का स्वागत किया जायेगा | सादर ....ललित चाहार
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार ललित जी
हटाएंबढ़िया!!
जवाब देंहटाएंbahut sundar ....akshar chhote hain ..
जवाब देंहटाएं