शनिवार, 7 सितंबर 2013

रिश्ते


रिश्तों से  निकल कर भी उनके  नजदीक आ जाती  हूँ 
हर बार कस्ती  डूबती है पर मैं किनारे ले आती  हूँ
मोती  चुन 2 कर इस रिश्तों  को पिरोती हूँ 
हर एक रिश्तों को अपने दिल में  संजोती हूँ 
पता है मुझे ये न रहेगे साथ मैं 
पता है मुझे फिर एक दिन टूटेगे  
ना  रहे  एक साथ मैं 
हर दिन ऑंखें पानी  छलक  जाती हैं 
फिर दिल कहता है 
अभी तो आँखों के पानी का घड़ा  भरा भी नहीं है 
आधी जिन्दगी  तो बीत  गई  
आधी  कैसे बिताऊ ? ये सोच कर रह जताती हूँ 
कुछ अपनों  का गिला है कुछ पराया 
हर बात को तो मैं तराजू  से भी कडा  तोलती हूँ 
फिर भी रिश्ते तो यही कहते हैं 
मैं ही बहुत भला बुरा बोलती हूँ 
इन अंशुओ  को तो मैं रोक लूगी 
इन तनहइयो को भी सह लूगी
कोशिस  करती हूँ इन रिश्तों  से आजादी पाने को 
फिर भी हर सुबह  इन के नजदीक आ जाती हूँ 
दिनेश पारीक 



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