बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

माँ मार दो मुझको अभी....."

माँ मार दो मुझको अभी....."

एक दिन खोई थी मैं अपने ही सपनो में ,

तन्हा थी जबकि मैं बैठी थी अपनों में ....
आवाज़ दी मुझको किसी ने पर वहा कोई था
गूंज मेरे कानो में गूंजती फिर भी रही

मानो मुझसे कह रही हो माँ मुझे तुम मत बुलाओ
दुनिया की इस आग में घुट - घुट के मुझे मत जलाओ
मानव रूपी दानव मुझे समाज में जीने देगा
मस्त परिंदे की तरह मुझे आकाश में उड़ने देगा
रौंदकर देह मेरी कुचलेगा सपनो को मेरे
काट देगा पंख मेरे छोड़ देगा रक्त रंजित , रक्तरंजित.........

क्या मेरे इस दर्द को तब सहन कर पाओगी ?
मेरे ह्रदय की वेदना को दुनिया से कह पाओगी ?
माँ अभी हु मैं अजन्मी, जान हू तेरी अभी ,
दिल पर पत्थर रख लो माँ
मार दो मुझको अभी .... 

 मार दो मुझको अभी अभी अभी अभी ..........
आशीष त्रिपाठी

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

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  2. आपकी रचनाए बहुत सुंदर लगी

    आप मेरे दूसरे ब्लॉग पर भी अपनी प्रतिक्रिया देवे
    हतत्प://वानगायडिनेश.ब्लॉगस्पोट.इन/
    http://vangaydinesh.blogspot.in/

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