शनिवार, 2 मार्च 2013

पृथिवी (कौन सुनेगा मेरा दर्द ) ?

कोन  सुनेगा  मेरा दर्द 
टिका  कर रखती है
पृथिवी हमें और कंपाती भी,
है  जल  धरा  के बरसनेपर 
बरसता गगन से
जल और अग्नि, पवन देता ठिठुरन
और चक्रवात
सब  कितनी  सहजता  से  हो जाता है 
कभी हम भी वशीभूत  हो जाते  है 
इस धरा  पर  
फूलो  के महकने  से लेकर 
मुरझाने  तक  सहना 
पानी  बरसने  से लेकर 
सूखने  तक  सहना 
पेड़ो   के अकुर  फूटने  से लेकर 
पेड़  बनते  देखना 
फिर उसी  पेड़  को कटने  देखना 
और  अपने ही अंग  को  अपने ही बेटे  की चिता 
 के साथ दोनों के जलते देखना 
क्या इस पृथिवी के लिए  इतना सहज  है 
सहज  ये सहज शब्द  ही हम कितनी  सहज 
से उपयोग  मैं ले लेते है 
कभी ये सहज  शब्द  माँ   बहिन  बेटी 
अर्धांगिनी  के लिए हम  बड़ी आसानी 
से उपयोग  मैं लाते  हैं 
कभी नहीं सोचते 
की वो  इस दर्द  भरे  शब्द  को सुनकर 
क्या सहज  महसूस  करती है 
वो भी तो  हमारे  लिए  एक धरा  है 
उसी  के अंग  से हमारे  अंग है
पता नही नहीं कब तक ये सहज शब्द 
वो  सह सकेगी   ये भी तो द्रोपती  ही है 
कब ये द्रोपती  बन जाये  फिर  
एक महाभारत  हो जाये 

महाभारत
होता है जीवन
हर किसी का भीतर भी,
बाहर भी बैठे हैं नकृष्ण
सबके भीतर,
कह रहे गीता
सबको अपनी-अपनी
सुन सकते हो इसको तुम भी
अर्जुन बनकर।
दिनेश पारीक 



26 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर रचना की प्रस्तुति.

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  2. सुंदर प्रस्तुति दिनेश जी

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  3. सुन्दर प्रस्तुति |
    आभार आपका -

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  4. सुंदर प्रस्तुति .....सजीव रचना

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  5. बहुत सुंदर रचना .....बहुत भावपूर्ण
    ब्लॉग की मुलाक़ात के लिए शुक्रिया

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  6. उत्तर
    1. आभार, अभिनन्दन है आपका, पुनः यहाँ मिलते रहिये।

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  7. उत्तर
    1. आभार, अभिनन्दन है आपका, पुनः यहाँ मिलते रहिये।

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  8. बहुत सुन्दर संदेशपरक रचना

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  9. प्रकृति के दर्द की सही अभिव्यक्ति....

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    1. आभार, अभिनन्दन है आपका, पुनः यहाँ मिलते रहिये।

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
    एक गहरी सोच !
    आभार !

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  11. आपने बहुत सहजता से दर्द को रेखांकित किया। बधाई!

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  12. गहरी अभिव्यक्ति..... बहुत उम्दा

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  13. गहरा अर्थ लिए ... अच्छी रचना ...

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  14. उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...

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  15. गंबीर भावों से ओतप्रोत प्रस्तुति

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  16. बेह्तरीन अभिव्यक्ति !शुभकामनायें

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